Opposition should play a constructive role in the proceedings of Parliament

Editorial: संसद की कार्यवाही में विपक्ष निभाए रचनात्मक भूमिका

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Opposition should play a constructive role in the proceedings of Parliament

Opposition should play a constructive role in the proceedings of Parliament: संसद के शीतकालीन सत्र में दोनों सदनों के अंदर विपक्ष की ओर से जिस प्रकार से गतिरोध खड़ा किया जा रहा है, वह बहुत स्वाभाविक था। लोकसभा चुनाव में विपक्षी सांसदों की संख्या बढ़ने और हालिया कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस एवं अन्य दलों को हार का जिस प्रकार सामना करना पड़ा है, उसकी वजह से भी विपक्ष खासकर कांग्रेस को अपनी आवाज बुलंद करने का यह सुअवसर जान पड़ रहा है। बेशक, संसद इसी कार्य के लिए है, लेकिन क्या संसदीय नियमों को परे रखकर विपक्ष की मांग को स्वीकार करते हुए सरकार को आगे चलना चाहिए।

इस प्रकार तो पूरा सत्र विपक्ष के आरोपों और उसकी जानबूझकर सदन की कार्यवाही को बाधित करने की मंशा की ही भरपाई होगी। गौरतलब है कि संसद के बीते सत्र में भी विपक्षी सांसदों की ओर से ऐसे गैरजरूरी प्रसंग और मामले उठाए गए थे, जिनका एकमात्र मकसद सरकार को नीचा दिखाना था। इस बार फिर ऐसा ही हुआ है, जब राज्यसभा में नेता विपक्ष एवं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने बगैर एक भी क्षण गंवाएं संसदीय कार्यवाही के इतर जाकर अडानी मुद्दे पर बोलने की मांग की। इस दौरान विपक्षी सांसदों की ओर से विपक्ष को बोलने दो के नारे भी लगाए गए। उपसभापति के द्वारा नियमों का हवाला और सदन की मर्यादा का ख्याल रखने को कहा गया तो खडग़े की ओर से चुनौतीपूर्ण जवाब दिया गया।

विपक्ष नियम 267 के तहत अदानी मुद्दे पर चर्चा और जेपीसी गठित करने की मांग पर अड़ा रहा लेकिन स्वीकृति न मिलने पर सदन में हल्ला इस कदर बढ़ा कि कार्यवाही दिनभर के लिए स्थगित कर दी गई। इसी प्रकार से लोकसभा में भी विपक्ष की ओर से बवाल किया गया। कांग्रेसी सांसद अदानी और मणिपुर मुद्दे तो समाजवादी पार्टी की ओर से यूपी के संभल में हिंसा को लेकर चर्चा की मांग की गई। लेकिन स्पीकर की ओर से इसकी इजाजत नहीं दी गई। इस पूरे प्रकरण में यह समझ से बाहर की बात है कि आखिर विपक्ष के सांसद इन मुद्दों पर ही बहस क्यों चाहते हैं। जाहिर है, सदन में विचार करने के लिए अन्य बहुत से मुद्दे हैं लेकिन विपक्ष के सांसद सिर्फ अपनी सुनाना चाहते हैं।

अडानी मुद्दा हर चुनाव में विपक्ष की जुबान पर होता है, वहीं मणिपुर का मामला अब विपक्ष के लिए सदैव प्रासंगिक हो गया है। इसी प्रकार से सपा की प्राथमिकता यूपी के संभल में हुई हिंसा को लेकर संसद में चर्चा की हो गई है। बेशक इनमें से कुछ मुद्दे गंभीर हैं, लेकिन क्या उन पर इसी समय चर्चा आवश्यक है। दरअसल, इन वाकयों को देखकर यही प्रतीत होता है कि सदन में शोर करना विपक्ष की आदत बन चुका है। विपक्ष के सांसदों से रचनात्मक भूमिका की अपेक्षा की जाती है, लेकिन आजकल के वातावरण में यह भूमिका कहीं गुम हो चुकी है। जनता जिस जनादेश के जरिये देशहित में निर्णय लेने की जिम्मेदारी सांसदों को सौंपती है, वे राजनीति में उलझ कर उस दायित्व को पूरा नहीं कर पाते।

 इस बार लोकसभा में तमाम ऐसे चेहरे हैं, जिन्होंने पहली बार चुनाव जीता है। निश्चित रूप से संसदीय परंपराओं को सीखने के लिए एक परिपाटी है। वरिष्ठ सांसदों के द्वारा यह परंपराएं नए सांसदों को सिखाई जाती हैं। हालांकि इस प्रकार के माहौल में क्या इसकी उम्मीद की जा सकती है कि नए सांसदों को कुछ सीखने को मिलेगा सिवाय इसके कि अपने वरिष्ठों के इशारे पर वे सदन में नारेबाजी और हल्ला करें और फिर जब स्पीकर या फिर उपसभापति सदन की कार्यवाही स्थगित करें तो सदन से बाहर आ जाएं। दरअसल, विपक्ष को इस रवायत को बदलने की जरूरत है। सत्र के आसपास घटी घटनाओं को जरिया बनाकर सदन की कार्यवाही में खलल डालने की यह प्रवृत्ति उचित नहीं है। बीते पंद्रह साल से देश में भाजपा का शासन है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं, यह मानने में कोई गुरेज नहीं किया जा सकता कि विपक्ष उनके प्रति ईर्ष्यालु है और उनकी सहज स्वीकार्यता नहीं है। क्या इस प्रकार का रवैया रखकर हम संविधान और लोकतांत्रिक मान्यताओं का निर्वाह कर रहे हैं।

हरियाणा में विस चुनाव के जनादेश को तो कांग्रेस ने साफतौर पर मानने से इनकार कर दिया, यही स्थिति राष्ट्रीय स्तर पर भी है। अगर कोई राजनीतिक दल अगर सत्ता में नहीं आ रहा है तो क्या उसे इसका परमिट हासिल हो गया है कि वह सदन में हल्ला करके अपनी बात को मनवाने की चेष्टा करे। दरअसल, संसद समन्वय का स्थल है। सत्ता पक्ष का ओहदा बढ़ा है, उसे विपक्ष को समझा कर अपने साथ लाना होगा, लेकिन विपक्ष को भी अपनी जिम्मेदारी को समझना होगा। 

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